आचार्य चाणक्य की प्रसिद्ध रचना चाणक्य नीति

प्रणम्य शिरसा विष्णुं त्रैलोक्याधिपतिं प्रभुम्।
नानाशास्त्रोद्धृतं वक्ष्ये राजनीति समुच्चयम् ॥१॥

भावार्थ – तीनों लोकों के स्वामी, भगवान विष्णु के चरणों में सिर झुकाकर प्रणाम करके वेद आदि अनेक शास्त्रों में वर्णित राजनीति के सिद्धांतों का वर्णन करता हूँ।

अधीत्येदं यथाशास्त्रं नरो जानाति सत्तमः।
धर्मोपदेशविख्यातं कार्याऽकार्य शुभाऽशुभम् ॥२॥
भावार्थ – इस नीतिशास्त्र का अध्ययन करने पर व्यक्ति यह जान लेता है कि कौन-सा काम उसके करने योग्य है और कौन-सा करने योग्य नहीं। उसे उचित-अनुचित परिणामों का पता चल जाता है, वह व्यवहार-कुशल हो जाता है। हमारे मत में यहाँ करने अथवा न करने योग्य कार्य को आचार्य चाणक्य ने धर्मोपदेश कहा गया है।

तदहं संप्रवक्ष्यामि लोकानां हितकाम्यया।
येन विज्ञानमात्रेण सर्वज्ञत्वं प्रपद्यते ॥३॥
भावार्थ – मैं लोगों के हित के लिए राजनीति के उन गूढ़ रहस्यों का वर्णन करता हूँ, जिन्हें जान लेने से ही व्यक्ति अपने आपको सर्वज्ञ समझ सकता है।

मूर्खशिष्योपदेशेन दुष्टस्त्रीभरणेन च।
दुःखितैः सम्प्रयोगेण पण्डितोऽप्यवसीदति ॥४॥
भावार्थ – चाणक्य नीति का कथन है कि मूर्ख शिष्य को उपदेश देने से, दुष्ट स्त्री का भरण-पोषण करने से और दुःखी लोगों की संगत करने से बुद्धिमान व्यक्ति भी कष्ट उठाता है।

दुष्टा भार्या शठं मित्रं भृत्यश्चोत्तरदायकः।
ससर्पे च गृहे वासो मृत्युरेव न संशयः ॥५॥
भावार्थ – जिसकी स्त्री दुष्टा हो, मित्र नीच स्वभाव के हों, नौकर जवाब देने वाले हों और जिस घर में साँप रहता हो, ऐसे घर में रहने वाला व्यक्ति निश्चय ही मृत्यु के निकट रहता है अर्थात् ऐसे व्यक्ति की मृत्यु किसी भी समय हो सकती।

आपदर्थे धनं रक्षेद् दारान् रक्षेद्धनैरपि।
आत्मानं सततं रक्षेद् दारैरपि धनैरपि ॥६॥
भावार्थ – मनुष्य को आकस्मिक विपत्ति के लिए धन इकट्ठा करना चाहिए, किन्तु धन के बदले अगर स्त्रियों की रक्षा करनी पड़े, तो धन को ख़र्च कर देना चाहिए। व्यक्ति को अपनी रक्षा के लिए इन दोनों चीज़ों का भी त्याग करना पड़े, तो इनका त्याग करने से नहीं चूकना चाहिए।

आपदर्थे धनं रक्षेच्छ्रीमतां कुत आपदः।
कदाचिच्चलिता लक्ष्मीः सञ्चितोऽपि विनश्यति ॥७॥
भावार्थ – व्यक्ति को कठिन समय से निपटने के लिए धन का संचय करना चाहिए। क्योंकि धन अर्थात् लक्ष्मी को चंचल कहा गया है। एक समय ऐसा आता है कि इकट्ठा किया हुआ रुपया-पैसा भी नष्ट हो जाता है।

यस्मिन् देशे न सम्मानो न वृत्तिर्न च बान्धवाः।
न च विद्याऽऽगमः कश्चित् तं देशं परिवर्जयेत् ॥८॥
भावार्थ – आचार्य चाणक्य की नीति के अनुसार जिस देश में व्यक्ति को सम्मान न मिले, जहाँ आजीविका के साधन उपलब्ध न हों, जहाँ बंधु-बांधव और मित्र न हों, विद्या-प्राप्ति के साधन भी न हों, उस देश में व्यक्ति को कभी निवास नहीं करना चाहिए।

धनिकः श्रोत्रियो राजा नदी वैद्यस्तु पञ्चमः।
पञ्च यत्र न विद्यन्ते न तत्र दिवसं वसेत् ॥९॥
भावार्थ – चाणक्य नीति के अनुसार जिस देश में धनी-मानी व्यवसायी, वेदपाठी ब्राह्मण, न्यायप्रिय तथा प्रजावत्सल व शासन व्यवस्था में निपुण राजा, जल की आपूर्ति के लिए नदियाँ और बीमारी से रक्षा के लिए वैद्य आदि न हों अर्थात जहाँ पर ये पाँचों सुविधाएँ प्राप्त न हों, वहाँ व्यक्ति को कुछ दिन के लिए भी नहीं रहना चाहिए।

लोकयात्रा भयं लज्जा दाक्षिण्यं त्यागशीलता।
पञ्च यत्र न विद्यन्ते न कुर्यात् तत्र संस्थितिम् ॥१०॥
भावार्थ – जहाँ आजीविका, व्यापार, दण्डभय, लोकलाज, चतुरता और दान देने की प्रवृत्ति–ये पाँच बातें न हों, वहाँ भी कभी निवास नहीं करना चाहिए।

जानीयात् प्रेषणे भृत्यान् बान्धवान् व्यसनाऽऽगमे।
मित्रं चाऽऽपत्तिकालेषु भार्यां च विभवक्षये ॥११॥
भावार्थ – कार्य करने के ढंग से नौकर की, व्यसन-ग्रस्त होने पर बन्धु-बांधवों की, संकट-काल या विपत्ति आने पर मित्रों की एवं धन के नष्ट हो जाने पर स्त्री की परीक्षा होती है।

आतुरे व्यसने प्राप्ते दुर्भिक्षे शत्रु-संकटे।
राजद्वारे श्मशाने च यस्तिष्ठति स बान्धवः ॥१२॥
भावार्थ – किसी असाध्य रोग से घिर जाने पर, दुःखी होने पर, अकाल पड़ जाने पर, शत्रु का भय उपस्थित हो जाने पर, अभियोग से घिर जाने पर और परिवार के किसी भी सदस्य की मृत्यु हो जाने पर साथ निभाने वाला व्यक्ति ही सच्चे अर्थों में बन्धु कहलाता है।

यो ध्रुवाणि परित्यज्य अध्रुवं परिषेवते।
ध्रुवाणि तस्य नश्यन्ति अध्रुवं नष्टमेव च ॥१३॥
भावार्थ – जो हाथ में आए निश्चित पदार्थों को छोड़कर अनिश्चित पदार्थों के पीछे भागता है, उसे अनिश्चित का मिलना तो दूर रहा, उसके निश्चित भी नष्ट हो जाते हैं।

वरयेत् कुलजां प्राज्ञो विरूपामपि कन्यकाम्।
रूपवतीं न नीचस्य विवाहः सदृशे कुले ॥१४॥
भावार्थ – बुद्धिमान व्यक्ति को श्रेष्ठ कुल की कन्या से ही विवाह करना चाहिए। उसे सौन्दर्य के पीछे नहीं भागना चाहिए। कुलीन कन्या का रंग-रूप भले ही सामान्य हो, किन्तु व्यक्ति को अपना सम्बन्ध कुलीन घराने की कन्या से ही करना चाहिए। इसके विपरीत नीच कुल की सुन्दर कन्या से केवल उसका रूप देखकर विवाह करना उचित नहीं।

नखीनां च नदीनां च शृङ्गीणां शस्त्रपाणिनाम्।
विश्वासो नैव कर्त्तव्यः स्त्रीषु राजकुलेषु च ॥१५॥
भावार्थ – नाखून वाले हिंसक पशुओं, नदियों, सींग वाले पशुओं, शस्त्रधारियों, स्त्रियों एवं राजकुलों पर कभी विश्वास नहीं करना चाहिए।

विषादप्यमृतं ग्राह्यममेध्यादपि काञ्चनम्।
नीचादप्यत्तमा विद्या स्त्रीरत्नं दष्कलादपि ॥१६॥
भावार्थ – चाणाक्य नीति बतलाती है कि विष में से अमृत को, अशुद्ध पदार्थों में से सोने को, नीच मनुष्यों में से उत्तम विद्या को, दुष्ट कुल से स्त्री रत्न को ले लेना चाहिए।

स्त्रीणां द्विगुण आहारो बुद्धिस्तासां चतुर्गुणा।
साहसं षड्गुणं चैव कामोऽष्टगुण उच्यते॥१७॥
भावार्थ – स्त्रियों का आहार पुरुषों की अपेक्षा दो गुना, बुद्धि चार गुना, साहस छः गुना और काम वासना आठ गुना अधिक होती है।


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